इस लेख में हम हिंदी नाटक और उसका विकास का अध्ययन करेंगे। भारतवर्ष में नाटक लेखन की कला और उसके मंचन की कला प्राचीन काल से ही विद्यमान रही है उदाहरण के रूप में भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र इस विधा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। जिसमें उन्होंने नाटक के लिए जरूरी तत्वों और उसके महत्व को रेखांकित किया है ।
यह सारा लेखन कार्य उन्होंने संस्कृत भाषा में किया और भाषा के विकास क्रम में यह सर्वविदित है कि हिंदी की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। जिसका एक पूरा विकास क्रम रहा है इस लेख के माध्यम से हम हिंदी नाटक और उसके विकास यात्रा का विकास विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। 17वीं और 18वीं शताब्दी में ब्रजभाषा में नाटक लिखे गए। जिसमें प्राणचंद चौहान द्वारा लिखा गया नाटक ‘रामायण महानाटक’ और विश्वनाथ सिंह द्वारा लिखा हुआ नाटक ‘आनंद रघुनंदन’ प्रमुख है।
नाटक विधा के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जी ने अपनी लखनी के माध्यम से नाटक विधा को बहुत ही समृद्ध और जीवंत बनाया है। इन्हीं के नाम को आधार बनाकर हिंदी नाटक साहित्य के उद्भव और विकास को हम चार भागों में विभाजित करके अध्ययन करेंगे।
- प्रसाद से पूर्व हिंदी नाटक विधा
- प्रसाद कालीन हिंदी नाटक विधा
- प्रसादोत्तर हिंदी नाटक विद्या
- स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी नाटक विधा
प्रसाद से पूर्व हिन्दी नाटक विधा को दो भागों में विभाजित कर के हम अध्ययन करेंगे
भारतेन्दु कालीन हिन्दी नाटक
हिंदी खड़ी बोली में प्रथम आधुनिक नाटक लिखने का श्रेय भारतेंदु जी को जाता है। भारतेंदु जी का मानना था कि नाटक विधा का मूल उद्देश्य जनमानस का मनोरंजन करना साथ ही साथ उनको जागरूक करना भी है। उनमें वह आत्मविश्वास जगाना है। जिससे वह अपना अधिकार और एक गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश शासन से लड़ सके। 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत में आर्थिक और राजनीतिक रूप से अपने पैर जमा लिए थे। ब्रिटिश शासन के अन्याय पूर्ण नीतियों के बताने तथा उसको आम जनमानस के सामने उजागर करने के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने नाटक विधा को चुना।
भारतेंदु युग ने अधिकतर प्रहसन नाटक लिखे। प्रहसन का मतलब यह होता है कि हास्य-व्यंग्य के माध्यम से तत्कालीन समाज में विद्यमान धार्मिक, राजनीतिक, कुरीतियों आदि को समाज के सामने प्रस्तुत करना तथा उसके प्रति जागरूक करना। कौन सी सामाजिक प्रथाएं हमारे लिए लाभदायक हैं? और कौन से ऐसे कार्य करेंगे जिससे हम उन्नति के पथ पर अग्रसर होंगे? नाटकों के माध्यम से अंधविश्वास और प्रथाओं पर भी कुठाराघात किया गया।
- द्विवेदी युग-
यह वह युग है जिसमें एक भाषा के रूप में हिंदी खड़ी बोली को पूर्ण रूप से लेखन कार्य के लिए स्वीकार कर लिया गया था। यह स्वीकार्यता लेखन के लिए बहुत ही सहायक सिद्ध हुआ जिससे उनको यह रास्ता दिखा की भारत की भाषा हिंदी खड़ी बोली है। जिसमें देश की अधिकतर जनता बातचीत करती है। द्विवेदी युग में अधिकतर पौराणिक, सामाजिक, रोमांचकारी एवं ऐतिहासिक नाटक लिखे गए। कुछ पारसी नाटक भी लिखे गए। द्विवेदी युग के अधिकतर नाटकों में पारसी रंगमंच के नाटकों का प्रभाव दिखता है।
जयशंकर प्रसाद जब नाटक विधा में लिखना प्रारंभ करते हैं तब भारत में यह वह दौर था जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन अपने उत्थान की तरफ था। जयशंकर प्रसाद के नाटकों में ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक चेतना आदि से परिपूर्ण तत्व दिखाई पड़ते हैं। उनके नाटकों में स्त्री चरित्र अपने सशक्त रूप में परिपूर्ण होती है। इन्हीं विषय वस्तु को केंद्र में रखकर जयशंकर प्रसाद में अपने अधिकतर नाटक लिखे हैं। जयशंकर प्रसाद के प्रमुख नाटक कल्याणी, करुणालय, राजश्री, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, अजातशत्रु, ध्रुवस्वामिनी आदि हैं।
स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी नाटक-
इस कालखंड को हम 1930 के बाद का कालखंड मान सकते हैं। जो आजादी तक चला इस कालखंड तक आते-आते भारतीय जनमानस पारंपरिक आदर्श और भावनाओं का त्याग कर एक यथार्थ पूर्ण जीवन में प्रवेश कर गया था। उसको यह ज्ञात हो गया था कि जब तक हम अंग्रेजों को इस देश से भगाएंगे नहीं तब तक हमारा भला नहीं हो सकता। इन्हीं विषय वस्तुओं को लेकर भारत में जबरदस्त स्वतंत्रता आंदोलन फैला जिसका नेतृत्व भारतीय साहित्यकारों ने अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय आजादी के लिए भारत के जन-जन को इस जनव्यापी आंदोलन में भाग लेने के लिए आवाहन किया।
भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के इस आवाहन में भारत के मजदूर, किसान आम नागरिक ने आदि ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस कालखंड में दो तरह के नाटक लिखे गए एक भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित नाटक। दूसरा यथार्थ या समस्या प्रधान नाटक लिखे गए। इस कालखंड तक आते-आते जो पारसी रंग मंच द्विवेदी युग के बाद काफी लोकप्रिय हो चुका था। उसकी चमक फीकी पड़ने लगी थी क्योंकि इसका स्थान चलचित्रों ने ले लिया था।
- राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण नाटक-
इन तरह के नाटकों में भारतीय सांस्कृतिक पुनरुत्थान तथा स्वाधीनता के चेतना से परिपूर्ण समन्वयवादी नाटक लिखे गए। इन नाटकों में नैतिक मूल्यों पर अधिक बल दिया गया। इस क्षेत्र के प्रमुख नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी जिन्होंने ‘रक्षाबंधन’ और ‘आहुति’ नाटक लिखा गोविंद बल्लभ पंत का ‘राजमुकुट’ नाटक आदि प्रमुख हैं।
- यथार्थवादी या समस्यापरक नाटक-
इन नाटकों के माध्यम से नाटककार का उद्देश्य समाज के सूक्ष्म मन को पकड़ने का प्रयास करता है। व्यक्ति के मन में उठ रहे तमाम तरह के द्वंद, प्रेम, विवाह समस्या आदि सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखकर नाटककार नाटक लिखने का प्रयास करता है। कभी-कभी एक व्यक्ति ही पूरे नाटक का कथानक हो जाता है और उसी के केंद्र में पूरा नाटक लिखा जाता है। उसके मन में उठने वाले तमाम तरह के भाव समाज से उसके विद्रोह आदि विषयवस्तु को लेकर नाटक लिखा जाता है उदाहरण के रूप में उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ द्वारा लिखा हुआ नाटक ‘अंजोदीदी’ इस कोटी का सर्वोत्तम नाटक है। हरिकृष्ण प्रेमी द्वारा लिखा गया ‘छाया’ नाटक आदि।
आजादी के बाद नाटक लेखन-
आजादी से पूर्व भारतीय जनमानस में आजादी प्राप्त करने के लिए जो स्वतंत्रता आंदोलन चलाया गया और जो संघर्ष किया गया। वह इसलिए किया गया कि अंग्रेजी सत्ता से आजाद होने के बाद हमारा जीवन सुधर जाएगा और हम एक स्वच्छंद जीवन जिएंगे। जिसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं होगी लेकिन आजादी प्राप्त होने के बाद भारतीय जनमानस का देखा हुआ सुनहरा स्वप्न जब पूरा नहीं होता है तो उसके अंदर तमाम तरह के अवसाद उत्पन्न हो जाते हैं। यह भाव मध्यम वर्ग में देखने को काफी मिलता है क्योंकि आजादी के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष किसी ने किया तो वह भारतीय मध्यम वर्ग था। जो पढ़ा लिखा तथा अपने जीवन को अच्छा जीवन बनाने के लिए तमाम तरह के संघर्ष कर रहा था।
यह संघर्ष शहरों में ज्यादा था गांव की अपेक्षा। आजादी के बाद जब उसके देखे हुए स्वप्न पूरे नहीं होते तो उसके मन में एक तरह से आजादी के प्रति मोहभंग हो जाता है। जिस कारण से उसके अंदर अकेलापन, विसंगतिबोध अजनबीपन आदि भाव उसके मन में घर कर जाते हैं। इन्हीं सभी विषय वस्तुओं को आधार बनाकर नाटककारों ने अपना नाटक लिखना प्रारंभ किया। जिसमें वह पात्रों का भीड़ न बटोर कर उस मध्यम वर्ग के व्यक्ति को अपने कथानक का नायक बनाता था। उसके विसंगतिबोध, अजनबीपन, अकेलेपन आदि का सूक्ष्म वर्णन करके समाज का तत्कालीन स्वरूप दर्शकों और पाठकों के सामने रखता है।
20वीं शताब्दी के छठे दशक में एक नए तरह के आधुनिकता बोध से प्रेरित भी नाटक लिखे जा रहे थे यह नाटक इस प्रकार थे जैसे नवलेखन, नई कहानी, नई कविता उसी को आधार बनाकर नया नाटक आंदोलन चला।
आधुनिकता बोध से हमारा तात्पर्य वैचारिक नूतनता से है जिसमें विचार स्वच्छंद है और कटु यथार्थ को स्वीकार करने के लिए यथावत रूप में तैयार है आधुनिकता बोध को हिंदी नाटक में पूर्ण रूप से स्थापित करने में धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि नाटककारों का अहम योगदान है। धर्मवीर भारती द्वारा लिखा गया अंधा युग नाटक में भारतीय पौराणिक महाभारत युद्ध को कथानक के रूप में लेकर तत्कालीन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपजी परिस्थितियों का मूल्यांकन किया गया है। युद्ध हार जीत का न होकर मानवता की हार को प्रदर्शित करता है कि आज भी मनुष्य उस वैचारिक और बौद्धिकता को प्राप्त नहीं कर पाया जिसमें सभी मनुष्य एक समान है तथा सभी संसाधन सभी के लिए हैं।
जब व्यक्ति को उसका जीवन निरुउद्देश्य और अर्थहीन लगने लगता है तब वह व्यक्ति विसंगतिबोध के ग्रंथि से ग्रसित हो जाता है। उसको इस पृथ्वी पर कोई भी घटना और परिस्थिति संगत नहीं लगती और ऐसे भी लोग हमारे समाज में विद्यमान है जो ऐसा जीवन जी रहे हैं इन्हीं व्यक्तियों को केंद्र में रखकर उस समय के नाटककारों ने विसंगति बोध को आधार बनाकर नाटक लिखे।
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