हिंदी साहित्य में रस को काव्य की आत्मा माना गया है। जब काव्य में रस का विवेचन किया जाता है तो जो तत्व उस रस के गुण को बढ़ा देते हैं उनको काव्य गुण कहा जाता है।
जिस काव्य में दोष न्यून मात्रा में हो या फिर बिल्कुल ही ना हो और काव्य में रस के गुण को बढ़ाने वाले तत्वों की अधिकता हो उसे काव्य गुण कहते हैं।
काव्य गुणों के प्रकार
काव्यशास्त्र के प्रकांड विद्वान भरत मुनि ने काव्य गुणों की संख्या 10 मानी है। श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज शौकुमार्य, अर्थशक्ति, उदारता, और कांति।
माधुर्य गुण-
माधुर्य गुण से हमारा तात्पर्य है कि शहद जैसा मीठा जब हम शृंगार और करुण रस से भरे रचनाओं को पढ़ते हैं तो हमारा हृदय आनंद उल्लास करुणा आदि भाव से भर उठता है। तो वहां पर माधुर्य गुण माना जाता है क्योंकि कवि रचना करते समय उन सभी विषय बिंदुओं को अपने काव्य में समाहित करता है जो पाठक और श्रोता के हृदय को आदि भाव से द्रवित कर उसको समाज के प्रति संवेदनशील बनाने का प्रयास करता है। वह चाहता है कि पाठक और श्रोता इस रचना को पढ़कर रस के उन सभी भावों को समझने का प्रयास करें जो एक मानव हृदय में अवश्य होनी चाहिए।
माधुर्य गुण का प्रयोग श्रृंगार, करुणा और शांत रसों में होता है, क्योंकि वहां पर रचनाकार अपने काव्य में उस सिंगारिक आनंद और करुणा रूपी शोक को तथा शांत रूपी भाव को समाज में प्रवाहित करना चाहता है। रस में माधुर्य गुण की जितनी अधिक प्रचुरता होगी काव्या उतना ही हृदय स्पर्शी और श्रोता और पाठक के मन और हृदय को छूने वाला होगा। वह उतना ही उत्तम और श्रेष्ठ रचना साबित होगा जितना वह अपने अंदर माधुर्य गुण को समाहित किए रहेगा।
ओज गुण
इस शब्द को सुनते ही हमारे मन में भाव आता है कि जिसमें ऊर्जा तेज प्रकाश उत्साह आदि भरा हो। जिस काव्य और रचना को पढ़कर और सुनकर, सुनने और पढ़ने वाले के मन में उत्तेजना का भाव पैदा हो वहां पर ओज गुण होता है। इस गुण का अधिक मात्रा में प्रयोग वीर रस, रौद्र और भयानक रसों में किया जाता है। कभी-कभी हमें यह भी देखने को मिलता है की वीभत्स रस में भी ओज गुण का आभास होता है। अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग रसों में अलग-अलग प्रकार से ओज गुण को परिभाषित किया है। विद्वानों का मानना है कि महाप्राण ध्वनियों में ओज गुण होता है संयुक्तक्षरों में भी उसे गुण पाया जाता है।
आचार्य वामन का मानना है कि जिस रचना में ओज गुण की प्रधानता होती है। वहां पर श्रृंगार रस का बहुत कम मात्रा होता है। क्योंकि पूरी व्याख्यान में तेज और उत्तेजना से भरी बातें होती है। वही आचार्य मम्मट का भी मानना है कि जिस रचना में ओज गुण का प्रयोग होता है। उस रचना में पौरूषता कूट-कूट कर भरा रहता है।
प्रसाद गुण
प्रसाद गुण का सरल सा अर्थ है प्रसन्नता जिस रचना को सुनकर पढ़कर हृदय को प्रसन्नता की प्राप्ति होती है वहां पर प्रसाद गुण होता है। प्रसाद गुण के काव्य रचना में सरल सहज शब्दों का प्रयोग होता है। प्रसाद गुण में कान को पीड़ा देने वाले शब्दों और दीर्घ समासों का बिना प्रयोग किये कवि काव्य की रचना करता है। इस गुण से हमारे चित को प्रसन्नता की प्राप्ति होती है जो की व्यक्तिगत विकास के लिए बहुत आवश्यक है।
काव्यशास्त्र के सुप्रसिद्ध विद्वान वामन का मानना है कि प्रसाद गुण में पांचाली रीति अधिकता होती है। काव्यशास्त्र दूसरे प्रसिद्ध विद्वान मम्मट का मानना है कि इसमें कोमला वृत्ति की अधिकता होती है।
प्रसाद गुण के माध्यम से हमारे शरीर में एक साथ अर्थ का प्रकाश हो जाता है अगर इसको हम सरल शब्दों में कहें तो प्रसाद गुण वही होता है जहां रचना अत्यंत सरल और सुकोमल भाषा में लिखी गई हो। इस गुण का संबंध ओज और माधुर्य दोनों से है। अर्थात कहने का सीधा सा अर्थ है कि प्रसाद गुण का प्रयोग हम सभी नौ प्रकार के रसों में कर सकते हैं। वही हम दूसरी तरफ देखते हैं यह सुविधा हमें ओज और माधुर्य गुण में नहीं देखने को मिलता है। प्रसाद गुण को सभी गुणों में गुणराज कहते हैं। अर्थात यह सभी गुणों का राजा है।
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