कानों में कंगना- राधिका रमण प्रसाद सिंह

इस कहानी को शुक्ल जी ने अत्यंत भावुकता पूर्ण कहानी कहा है। राधिका रमण प्रसाद सिंह की पहली कहानी संग्रह कुशमांजलि में ‘कानों में कंगना’ प्रकाशित हुआ। 1913 में ‘हिंदू’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई।

‘कानों में कंगना’ कहानी में लेखक ने तत्कालीन सामंती परिवेश में पत्नी और वेश्यावृत्ति के बीच प्रेम की टकराहट को दिखाया है।

कानों में कंगना

‘कानों में कंगना’ – कहानी की समीक्षा

‘कानों में कंगना’ राधिका रमण प्रसाद सिंह जी द्वारा लिखित सर्वप्रसिद्ध प्रेम कहानी है। प्रेम साहित्य का सबसे पसंदीदा विषय है। इस कहानी की मुख्य किरदार किरन हृदय और चेहरे से कोमल और बहुत सुंदर है। किरन के पास बहुत सारी आज़ादियां थी लेकिन वह सारी आजादियों को त्याग कर अपनी प्रेमी के साथ दांपत्य जीवन चुना। प्रेम एक ऐसा पवित्र बंधन है जिसमें जब कोई एक स्त्री और पुरुष बंधता है तो वह अपने विचारों अपने मन को स्वतंत्रता प्रदान करता है।

प्रेमी के हर सुख दुख में साथ रहने और उसका सम्मान करने आदि भावों से बढ़ जाता है। सच्चा प्रेमी वही है जो जीते जी ना तो खुद को कलंकित करता है नहीं अपने प्रेमी को कलंकित करता है। भारतीय संस्कृति और जीवन परंपरा में दांपत्य जीवन एक बहुत ही सशक्त मेरुदंड है। जिससे समाज की उन्नति समाज में प्रेम की वृद्धि आदि भाव एक साथ निहित है।

अगर हम ‘कानों में कंगना’ कहानी के संदर्भ में बात करें तो कहानी की मुख्य बात किरण जब एक कुंवारी स्त्री के भाव को छोड़कर प्रेम के माध्यम से दांपत्य जीवन में प्रवेश करती है तो उसके जीवन के उतार-चढ़ाव को समझती है। फिर भी वह अपने प्रेमी से प्रेम करना काम नहीं करती क्योंकि प्रेम किरन का मूल तत्व है। जो अत्यंत भावुकता के साथ उसके अंदर भरा पड़ा है।

प्रेम विवाह करने के बाद किरण बहुत खुश है लेकिन जिसने उसे प्रेम विवाह किया है अब वह उसको अपने प्रेम में नहीं बन पा रहा है और इस बात को किरन जब तक समझती है तब तक उसका सब कुछ खत्म हो चुका रहता है। क्योंकि किरन के प्रेम में भोलापन निश्चलता कोई छल कपट नहीं है।

प्रस्तुत कहानी में एक स्त्री का पुरुष के प्रति प्रेम भाव के साथ अटूट आकर्षण को दिखाया गया है। पुरुष के प्रेम में खोए रहने की स्त्री के कमजोरी को भी दिखाया गया है।

किरन के पिता योगेश्वर ने किरण का विवाह अपने शिष्य नरेंद्र से करवा दिया। विवाह के बाद नरेंद्र एक किन्नर महिला पर मोहित हो जाता है। इस मोह और लगाव के कारण नरेंद्र अपनी पत्नी किरन के सारे गहने किसी ने किसी बहाने चोरी छिपे उस किन्नरी को दे आता। जब इस बात का पता किरण को चलता है तो उसका हृदय दुख से भर उठता है और इस दुनिया से चल बस्ती है। किरण की मृत्यु के बाद नरेंद्र को बहुत आत्मग्लानि होती है लेकिन अब उसके पछतावे का क्या फायदा? जब उसकी प्रेमिका किरण ही ना रही।

‘कानों में कंगना’ कहानी की शुरुआत भी कानों में पहने हुए कंगन के बात से ही शुरू होती है। जब नरेंद्र किरण से पूछता है कि किरण तुम्हारे कानों में यह क्या है तो किरन अपने बालों को हटाकर तपाक से बोलता है कंगना।

‘कानों में कंगना’ कहानी में लेखक ने किरन को भोरी कहा है। भोरी का मतलब है भोलापन लेकिन यहां लेखक स्पष्ट करता है कि दुनिया जिसे भोरी कहती है किरण वैसी भोरी नहीं है। आप किरन को वनों में लगे फूल के समान भोलापन समझ सकते हैं। वह उस फूल के समान है जो वन में प्रकृति के हाथों लगाए गए हैं। और इन फूलों का लालन-पालन प्रकृति ने स्वयं किया है। जिस कारण यह निश्चल और स्वतंत्र हैं। वैसे ही किरन निश्चल और स्वतंत्र प्रेम से भरी हुई है।

कानों में वह दो कंगन होने से किरण इतनी सुंदर दिख रही थी कि उसकी सुंदरता पर नरेंद्र अत्यंत मोहित हो जाता है। किरन के पिता योगीश्वर वन में एक साधारण सी कुटी बनाकर रहते थे। इस वन में उनके साथ उनकी बेटी किरन भी रहती थी। किरन अपनी मस्त lमौला स्वभाव के अनुसार पूरे वन में विचरण करती, खेलती, घूमती हस्ती और खेलती पूरा दिन गुजार देती। यह देखकर उसके पिता भी बहुत प्रसन्न रहते।

नरेंद्र के पिता और योगीश्वर बचपन के साथी थे। जिस कारण नरेंद्र के पिता ने नरेंद्र से कहा कि तुम योगीश्वर के पास जाकर अपने धर्म के सारे ग्रंथ का अध्ययन कर आओ। इस वन में नरेंद्र का मुलाकात किरन से होता है।

जब नरेंद्र की शिक्षा पूरी हो जाती है तो योगीश्वर किरण का हाथ नरेंद्र के हाथों में सौप के चल जाते हैं।नरेंद्र किरन को लेकर वन से घर आ जाता है। लेकिन किरन को अपनी वन की दुनिया ही अच्छी लगती है।

 

एक दिन मुरादाबाद में नरेंद्र, मोहन के साथ नाच देखने गया वही एक किन्नरी से मिला। यार दोस्तों के चढ़ने पर नरेंद्र किन्नरी से घुल मिल गया।  नरेंद्र इस बात को स्वीकार करता है कि किन्नरी के वासना में उसका सब कुछ खो गया जैसे- वर्षों की धर्म शिक्षा बाप-दादा का पद- प्रतिष्ठा पत्नी के साथ पवित्र प्रेम सब एक साथ वासना के कुंड में भस्म हो गया। 5 महीने बीत गए लेकिन फिर भी किन्नरी का नशा नरेंद्र के मन से नहीं उतरा। वह खुद बताता है कि बनारसी साड़ी पारसी जैकेट, मोती का हार, कटकी, कर्णफुल सब कुछ उस मायाकारी के चरणों में अर्पित कर आया।

जब यह सारी बातें किरन को पता चली तो वह पछाड़ खाकर जमीन पर जा गिरी पड़ी। उसकी आंखों में आंसू ना था। मेरी आंखों में ना दया थी। लेकिन फिर भी पूरे घर में गहनों को खोजता रहा और किरन से पूछा कि कोई गहना बचा है तो किरन बोलती है कि हां ‘कानों का कंगना’ लेकिन किरण तो जमीन पर मरणासन्न लेटी हुई थी।

  • निष्कर्ष- ‘कानों में कंगना’ के माध्यम से लेखक ने एक निश्चल और त्यागपूर्ण प्रेम को दिखाया है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने समाज के दूसरे पक्ष को भी दिखाया है कि जब प्रेमी के अंदर किसी और के प्रति वासना आ जाती है तो कैसे पवित्र प्रेम में बढ़ा हुआ दांपत्य जीवन बिखर जाता है। साथ ही साथ घर का सुख चैन भी खो जाता है। इस कहानी में नरेंद्र का किन्नरी के प्रति वासना का भाव उसके प्रेम को खत्म तो करता ही है साथ ही उसको जीवन भर का पछतावा भी देकर चला जाता है।

गैंग्रीन- ‘अज्ञेय’ की समीक्षा को पढ़ने के लिए लिंक पे क्लिक करें…https://gamakauaa.com/%e0%a4%97%e0%a5%88%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%a8-%e0%a4%85%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%9e%e0%a5%87%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%8d/

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