सिनेमा और जनमाध्यम

जब भी हम सिनेमा या चलचित्र का नाम सुनते हैं तो हमारे सामने एक दृश्य उरभर कर आता है। किसी हाल या किसी चौपाल पर बैठकर या फिर घर-परिवार में एक दृश्य को देखना जो विभिन्न भाव भंगिमाओं,कहानी, संस्कृत, धर्म, जाति, क्षेत्र, रंग रूप आदि विविधताओं से भरा हुआ एक संपूर्ण दृश्य आपके सामने उभर कर आता है। सिनेमा अपने उद्भव से ही समाज के सामने एक दृश्य माध्यम के रूप में सदैव से साथ रहा है।

सिनेमा ने जितना पढ़े लिखे लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया उतना ही अनपढ़ लोगों को अपने माध्यम से आकर्षित किया। चाहे गरीब हो या अमीर सिनेमा दोनों का समान मात्रा में मनोरंजन और उसे सिनेमा के माध्यम से संदेश को पहुंचने में कारगर साबित हुआ। वह दर्शकों के विवेक के ऊपर है कि वह उस सिनेमा के माध्यम से क्या शिक्षा ग्रहण करता है। उस सिनेमा को देखकर वह क्या समझता है? आदि विषय सिनेमा में समाहित होते हैं।

सिनेमा का जनमाध्यम स्वरूप

हमारा विषय है जनमाध्यम के रूप में सिनेमा। हम सिनेमा पर आए उससे पहले हम यह जान लेते हैं कि जनमाध्यम होता क्या है? वह माध्यम जिसके द्वारा एक बड़ी संख्या में लोगों को कोई सूचना जानकारी तथ्य संदेश आदि भाव जनमाध्यम के साधनों से प्रेषित किया जाता है उसे जान मध्य कहते हैं।

जनमाध्यम में रेडियो टेलीविजन सिनेमा पत्र-पत्रिकाएं समाचार इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आदि सभी जनमाध्यम हैं। क्योंकि यह समाज में अधिक से अधिक व्यक्तियों के पास उपलब्ध है। मोबाइल फोन अधिक लोगों के पास उपलब्ध है। रेडियो अधिक लोगों के पास उपलब्ध है। टीवी सभी घरों में उपस्थित है। समाचार पत्र पत्रिकाएं सभी व्यक्ति तक आज के समय में पहुंच आसानी से है।

जनमाध्यम को परिभाषित करने के बाद अब हम आते हैं सिनेमा पर आज के समय में सिनेमा जनमाध्यम का बहुत बड़ा साधन है। आज विश्व के लगभग सभी घरों में या फिर कहें समाज में सिनेमा की उपस्थिति है। सिनेमा को हम टेलीविजन मोबाइल फोन आदि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर देख सकते हैं। जैसे-जैसे सिनेमा का रूप बदलता गया वैसे-वैसे सिनेमा आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करने वाला साधन बनता गया। कोई ऐसी सिनेमा आती जिसको देखने के लिए लोगों की भीड़ और  लाइन लग जाती है।

वह उस सिनेमा को देखने के लिए ब्लैक में टिकट खरीदने हद से ज्यादा अधिक पैसे देने को तैयार रहते। इससे उस सिनेमा का और सिनेमा जगत का आर्थिक आधार मजबूत होता गया। सिनेमा बनाने वालों में यह धारणा विकसित होती गई कि वह जितनी अच्छी सिनेमा बनाएंगे जितनी अच्छी पटकथा होगी लोग उससे अधिक से अधिक आकर्षित होंगे। और अधिक से अधिक देखने के लिए सिनेमा हॉल अन्य प्लेटफार्म पर जाकर उसको देखेंगे। जिससे उसे सिनेमा की कमाई होगी।

सिनेमा जनमाध्यम और सेंसरशिप

उस समय उस सिनेमा का प्रभाव पूरे समाज पूरे विश्व पर अपना छाप छोड़ता। लेकिन दूसरा विषय यह उठता है की क्या हम किसी भी तथ्य पर कथानक पर सिनेमा बना सकते हैं? या हम कुछ भी सिनेमा के माध्यम से दिखा सकते हैं! तो इसका उत्तर है नहीं। क्योंकि हम सिनेमा के माध्यम से भीभत्स हत्या के दृश्य सेक्सुअलिटी, बाल श्रम अन्य मानवी कृत्य जो एक शब्द समाज के लिए बिल्कुल आवश्यक नहीं है। उसको हम कतई सिनेमा के माध्यम से नहीं दिखा सकते।

लेकिन यह निर्धारित कौन करेगा की यह कथानक, तथ्य यह कंटेंट समाज के लिए हानिकारक है। तो उसके लिए बाद में सरकार ने एक सेंसरशिप बोर्ड का निर्माण किया। जो सिनेमा को समाज में दिखाने से पहले स्वयं खुद उस बोर्ड के सदस्य देखते हैं। फिर वह निर्धारित करते थे कि यह सिनेमा समाज में दिखना चाहिए या नहीं?

इस सिनेमा में अगर कुछ हानिकारक दृश्य है तो उसको हटाकर सिनेमा को समाज के सामने उपस्थित करना चाहिए आदि विषयों का निर्धारण सेंसरशिप बोर्ड करता था। यह सेंसर बोर्ड सरकार के नियंत्रण में काम करती है लेकिन यह सेंसर बोर्ड किसी भी पूर्वाग्रह के साथ कार्य नहीं कर सकती अगर उस मूवी में सरकार के खिलाफ कुछ दृश्य दिखाए जा रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उस मूवी को बन कर दिया जाए।

सेंसरशिप का कार्य सिर्फ उन दृश्यों को हटाना या उन तथ्यों को हटाना जिससे समाज में भेदभाव बड़े सांप्रदायिकता या किसी भी तरह का तनाव या किसी भी तरह की व्यवस्था का समर्थन करती हो उसकी रोकथाम है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है इसमें बोलने देखने सुनने सभी तरह की आजादी मिली हुई है। लेकिन उस पर भी कुछ रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन है।

हम कुछ भी बोल या दिख नहीं सकते। वह कहते हैं ना की हमारी स्वतंत्रता वही तक है जहां पर किसी दूसरे की स्वतंत्रता भंग ना हो। हमें इसका भी ध्यान रखना है। यदि किसी सिनेमा निर्माता को लगता है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है तो वह न्यायालय जा सकता है। क्योंकि भारत में न्यायालय एक स्वायत्त व्यवस्था के अंतर्गत आता है।

उस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इन तमाम खूबियों के साथ सिनेमा जनमाध्यम में अत्यधिक लोकप्रिय भी है अत्यधिक विवादित भी है। कुछ ऐसे सिनेमा आ जाते हैं जो समाज में बहुत ही लोकप्रिय हो जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी सिनेमा आते हैं जो समाज में कुछ वर्गों द्वारा या समाज की संपूर्ण लोगों द्वारा या सरकार द्वारा या किसी भी रूप में विवादों में भी गिर जाते हैं।

सिनेमा एक जनप्रिय माध्यम है समाज में यह अपना व्यवस्थित स्थान रखता है। सिनेमा समाज के सभी मुद्दों को उठता है। उन सभी समस्याओं को दिखाने का प्रयास करता है जो समाज में है। समाज से यह आग्रह भी करता है कि आप इसको दूर करने का प्रयास करें। सिनेमा के माध्यम से हम देश और समाज में क्रांति भी ला सकते हैं यही कारण है कि सिनेमा से लगभग सभी देशों की सरकारी डरती हैं।

इस डर के कारण वह उस सिनेमा पर अपने देश में प्रतिबंध लगाती हैं लेकिन यह बात जब जनमाध्यम से अन्य देशों के सिनेमा निर्माता के पास पहुंचता है तो उस देश के सिनेमा निर्माता उस विषय को लेकर अपने देश में सिनेमा बनाते हैं। जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध होता है पॉपुलर होता है और लोगों को इसकी जानकारी मिलती है।

सिनेमा के माध्यम से उसे सिनेमा में अभिनय करने वाले कलाकारों को भी विश्व स्तर की प्रसिद्धि प्राप्त होती है अमिताभ बच्चन जिनको लगभग विश्व के सभी देशों के सिनेमा प्रेमी जानते होंगे वैसे ही दूसरे देशों के सिनेमा के कलाकारों को अन्य देशों के लोग जानते और उनके सिनेमा देखते हैं। तो आज हम कह सकते हैं कि सिनेमा जान माध्यम का एक सशक्त स्तंभ है।

भारत में सिनेमा

चलचित्र का प्रथम प्रदर्शन 1896 में हुआ। इसका प्रथम प्रदर्शन मुंबई के वाटसन होटल में हुआ। तब से लेकर आज तक फिल्म जगत में तमाम तकनीकी सुधार हुए जिसके कारण आज का फिल्म जगत विश्व के फिल्म जगत को टक्कर देता है। फिल्म जितना शहरी दर्शकों को अपनी तरफ खींच उतना ही गांव के दर्शकों को भी अपनी तरफ आकर्षित किया यहां तक की लोगों को फिल्म के डायलॉग हो बहू याद करना हो बहू बोलना आज उनके मनोरंजन का साधन हो गया अगर हम उत्तर से दक्षिण की तरफ चले तो वहां के दर्शक फिल्म अभिनेता को अपना आराध्य देवता मानकर उनके दीवाने हुए रहते हैं।

भारतीय फ़िल्म जगत का विकास ढूंढी राज गोविंद फाल्के जो वर्तमान दौर में दादा साहब फाल्के के नाम से जाने जाते हैं। उनके नाम से फिल्म जगत का सबसे उत्कृष्ट अवार्ड भी दिया जाता है। इन्होंने भारत का प्रथम स्वदेशी निर्मित फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाया। इसके बाद भारत का फिल्म उद्योग चल ही पड़ा तमाम फिल्म निर्माता कंपनियां आए और बहुत से फिल्म निर्माता और निर्देशक भी फिल्म बनाने में रुचि दिखाने लगे। आलम आरा हिंदुस्तान की पहली बोलती सिनेमा थी। जिसे आर्देशिर ईरानी निर्देशन में बनाया गया था।

इसके बाद तो एक नया दौर शुरू हो गया। जिन्होंने भारतीय फ़िल्म जगत को बहुत ऊंचाइयों तक ले गया। सिनेमा एक जनमाध्यम के रूप में कार्य करने लगा। सिनेमा एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से किसी भी विचार को मास लेवल पर जनता तक पहुंचा जा सकता है।

निष्कर्षतः

हम कह सकते हैं कि वर्तमान दौर में सिनेमा जनमाध्यम का एक सशक्त रास्ता है जिसके द्वारा समाज को जागरूक सजग और संवेदनशील बनाया जा सकता है। समाज में एक नई चेतना की लहर पैदा की जा सकती है।

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