आज कहानी समीक्षा में हम कमलेश्वर की कहानी ‘दिल्ली में एक मौत’ की समीक्षा करेंगे। कमलेश्वर जी ने अपने पूरे रचना काल में तकरीबन 300 के आसपास कहानियों की रचना की। कमलेश्वर की पहली कहानी कामरेड थी जो 1948 में प्रकाशित हुआ।
कमलेश्वर का पहला कहानी संग्रह राजा निरबंसिया था जो 1957 में प्रकाशित हुआ। राजा निरबंसिया कहानी के माध्यम से कमलेश्वर ने साहित्य जगत में रातों-रात बहुत ही ख्याति प्राप्त की राजा निरबंसिया पति-पत्नी सम्बन्धों को लेकर एक भावनात्मक कहानी है। ‘दिल्ली में एक मौत’ इस कहानी को कमलेश्वर जी ने 1963 में लिखा था।
इस कहानी में कमलेश्वर ने आधुनिक शहरी जीवन के रिश्तों में व्याप्त कृत्रिमता, भावनाओं की शून्यता आदि विषय को दिखाने का प्रयास किया गया है। इस कहानी में कमलेश्वर ने आधुनिक युग के यथार्थ को दिखाया है कि आज के समय व्यक्ति का मौत भी मात्र दिखावे का पर्याय बन गया है।
दिल्ली में एक मौत- कमलेश्वर पूरी समीक्षा
दिल्ली के लोकप्रिय व्यापारी सेठ दीवान चंद का मौत हो जाता है। इस कहानी के माध्यम से लेखक दिखाना चाहता है कि इतने बड़े व्यापारी की मृत्यु होने के बाद भी दिल्ली के शहर के रोजमर्रा की घटनाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता दिल्ली में सभी चीज़ अपनी ढंग से चल रही हैं। दिल्ली के भागम भाग और भीड़भाड़ भरी जिंदगी में सेठ दीवान चंद के दाह संस्कार के लिए शव यात्रा निकलता है। उनके अर्थी के साथ मात्र सात लोग होते हैं। शमशान स्थल पर सभी व्यापारी अपनी स्कूटर, मोटर कार आदि वाहनों से पहुंचते हैं।
इस कहानी के माध्यम से लेखक ने आधुनिक युग के भावनात्मक खोखलेपन को दिखाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति के मरते ही कितना कुछ बदल जाता है। और इसकी तुलना लेखक एक घटना के माध्यम से करता है कि पिछले साल जब व्यापारी सेठ दीवान चंद की बेटी की शादी थी तो शादी में हजारों की भीड़ आई थी। लेकिन उनके मृत्यु के समय कुछ गिने-चुने ही लोग थे। कमलेश्वर जी ने वर्तमान दौर के स्वार्थपरक जीवन को भी दिखाने का बखूबी प्रयास किया है।
कहानी की शुरुआत सुबह-सुबह ठंड के दृश्य से होती है जिसमें चारों तरफ कोहरे से घूर हुआ वातावरण है। लेखक ने कहानी के शुरू में ही शहर की व्यस्तता पूर्ण जीवन को दिखाया है। कि वासवानी का नौकर अपने काम पर लगा है। अतुल मवानी अपने जूते को पॉलिश कर रहा है। सरदार जी भी अपने रोजमर्रा की काम में लगे हुए हैं।
लेखक सड़क पर एक अर्थी आते देख रहा है। और मन ही मन सोचता है कि इस अर्थी की खबर तो अखबार में भी छपा हुआ है। और इस खबर को मैंने पढ़ा है। इससे आप समझ सकते हैं कि सेठ दीवान चंद कितने बड़े व्यापारी थे। लेखक अपने आसपास होने वाले गतिविधि से यह भांपने का प्रयास कर रहा है कि सेठ दीवान चंद की शव यात्रा में कौन-कौन जाएगा। लेखक को अतुल मवानी बताता है कि तुमने सुना है सेठ दीवान चंद की मौत हो गई है। इस विषय पर ज्यादा बातचीत ना हो इसलिए लेखक मवानी के सामने बात बदल देता है कि तुम्हारे उसे कार्य का क्या हुआ? जो तुम करने वाले थे।
जब दूसरे विषय पर बात करने लगते हैं तो अतुल मवानी सेठ दीवान चंद की तारीफ करता है कि शुरू-शुरू में उन्हीं की वजह से मुझे काम मिला था। बहुत भले आदमी थे। यह बात चली रहा था कि तब तक सरदार जी खिड़की से अपना सर निकाल कर पूछते हैं कि मवानी कितने बजे चलना है शव यात्रा में समय तो 9:00 बजे का था।
व्यक्ति की मृत्यु हो जाए इससे कोई प्रभाव उनके आसपास रहने वाले लोगों पर नहीं पड़ रहा है। इसका सीधा उदाहरण सरदार जी हैं वह अपने नौकर से समझाते हुए जाते हैं कि खाना अच्छे से पका लेना। भुना हुआ पापड़ लेकर आना। सलाद भी काट लेना आदि विषय अपने नौकर को बात कर जाते हैं। इस प्रसंग से आप यह समझ सकते हैं कि किसी व्यक्ति के मर जाने से शहरों में दूसरे व्यक्ति की दिनचर्या प्रभावित नहीं होती।
गांव में हम देखते हैं कि अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो आस पड़ोस में खाने नहीं बनते या फिर बनते हैं तो लोग रुखा सुखा खाकर काम चला लेते हैं और उस व्यक्ति के घर के लोगों की सहायता में तल्लीन रहते हैं कि किसी तरह उस व्यक्ति का दाह संस्कार हो जाए और समाज के सभी लोग एकजुट होकर एक साथ काम करते हैं। शहरों में इस क्रियाकलाप का अभाव है।
लेखक इस प्रसंग के माध्यम से यह बताने का प्रयास करते हैं कि शहर में दिनचर्या किसी व्यक्ति के मरने से प्रभावित नहीं होती वह अपने कार्य में लगे रहते हैं कोई अपना बूट पॉलिश कर रहा है। कोई अपने कपड़े प्रेस कर रहा है। कोई अपना सामान ठीक कर रहा है आदि विषय हैं। छोले कुलचे वाला अपना समय से छोले कुलचे की दुकान लगा रहा है।
कहानी में आगे लेखक शहरों की संवेदन शून्यता दिखाते हैं। जब शव यात्रा में जाने के लिए सभी एकजुट होते हैं तो वहां पर कोई भी शोक संतप्त परिवार को दिलासा देने के बजाय एक दूसरे के कपड़ों को लेकर बात करते हैं। शहरों में संवेदना नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। जब वासवानी को अतुल मवानी सूट में देखता है तो वह पूछता है कि यह सूट तुमने कहां सिलवाया तो मिस्टर वासवानी बताते हैं कि खान मार्केट में अतुल मवानी बोलता है कि बहुत अच्छा सिला है मुझे भी टेलर का पता दे देना। यहां पर कहीं भी दीवान चंद की मृत्यु को लेकर किसी प्रकार की संवेदना नहीं है।
लेखक का दीवानचंद जी के बेटे से अच्छा खासा जान पहचान था इस कारण लेखक भी शव यात्रा में शामिल होता है। श्मशान घाट पर लेखक को किसी प्रकार की नैतिकता नहीं दिखाई देती है कोई सिगरेट पी रहा है तो कोई आपस में बात कर रहा है। औरतों की सुंदरता पर बात करते हुए लेखक कहता है कि वह खिलखिला कर हंस रही हैं उनके होंठ लाल-लाल और उनकी आंखों में एक तरह का गुरुर भी है जो शहर के जीवन मूल्य को दर्शाते हैं।
उनके पहनावे को देखकर कहीं से नहीं लगता कि वह किसी की मैयत में आए हैं। वह काफी सज धज कर अच्छे कपड़े पहनकर शव यात्रा में शामिल हुए हैं। औरतों ने अच्छे से मेकअप कर रखा है। हाथ में गुलदस्ते और फूलों की मालाएँ लिए हुए सभी खड़े हैं। तभी मिस्टर वासवानी अपनी पत्नी को आंखों से इशारा करके शव के पास जाने को कहते हैं लेकिन उनकी पत्नी एक अन्य औरत से बात कर रही थी।
जब शव को एक चबूतरे पर दर्शन के लिए रख दिया जाता है। शव को देखने फूल, मालाएँ और गुलदस्ता चढ़ाने लोग आते हैं तो रोने का झूठा नाटक करते हैं। अपने जेब से रुमाल निकाल कर उसको अपने नाक पर लगाकर सर सर की आवाज निकालते हैं और ऐसा ही कार्य सभी वहां पर उपस्थित लोग करते हैं। यहां पर लेखक यह दिखाने के प्रयास करते हैं कि कि लोग कैसे झूठी संवेदना जाहिर कर रहे हैं।
जैसे ही शव को जलाने के लिए अंदर ले जाया जाता है तुरंत शव यात्रा में आए सभी लोग चल पढ़ते हैं अपने-अपने घरों के लिए। एक दूसरे से बात करते हैं कि शाम को तुम मेरे घर आओगे ना, शाम को मेरे दोस्त के घर चलोगे ना आदि बात करते हुए सभी धीरे-धीरे निकल लेते हैं। यहां पर किसी प्रकार के नैतिकता नहीं सभी अपने दिनचर्या को फॉलो करने के प्रयास में है।
लेकिन यहां पर लेखक खुद पर अफसोस करता है कि काश मैं भी अच्छे से तैयार होकर शव यात्रा में आया होता तो मैं भी यहीं से अपने काम पर निकल जाता क्योंकि जैसे ही शव जलने को अंदर जाता है सभी लोग जो शव यात्रा में आए होते हैं अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं।
लेखक कहता है कि जैसे ही शव को आग लगा दिया जाता है। पेड़ के नीचे चार-पांच लोग बैठे हैं। एक मैं भी हूं। लेखक कहता है यह लोग भी मेरी तरह तैयार होकर घर से नहीं आए हैं नहीं तो यह भी काम पर निकल जाते। अब लेखक कहता है कि अब तो मेरे समझ में नहीं आता कि मैं अब दफ्तर जाऊं या फिर एक मौत का बहाना करके छुट्टी ले लूं। यहीं पर कहानी समाप्त हो जाती है।
निष्कर्ष
इस कहानी के माध्यम से कमलेश्वर या बताने बताना चाहते हैं कि मृत्यु जैसे समय में भी लोग और संवेदनशील और मूल्यहीन हो गए हैं। जिस व्यक्ति के घर मृत्यु हुई हुई है उसके परिवार के प्रति लोगों कि किसी प्रकार की संवेदना नहीं है। यह भी बताते हैं कि जब वह इंसान जीता है तो उसके साथ कितनी भीड़ रहती है लेकिन जैसे ही उसकी मृत्यु होता है वह सभी लोग उसके सब यात्रा से गायब हो जाते हैं कुछ गिने-चुने लोग आते हैं लेकिन वह अभी एक सच्ची संवेदना के साथ शामिल न होकर समाज को दिखाने वाली संवेदना से शामिल होते हैं।
इस कहानी में जीवन मूल्यों का विघटन भी दिखाया गया है कि कैसे शहरों में व्यापार में लिप्त समाज किस तरफ पूरी तरह मूल्य हैं संवेदन शून्य हो चुका है।
कानों में कंगना- राधिका रमण प्रसाद सिंह …https://gamakauaa.com/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a4%a8%e0%a4%be/
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