अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त

प्लेटो का मानना था कि- काव्य कला एक आदर्श राज्य के लिए अनुपयोगी कार्य वस्तु है। इस प्रकार विरेचन सिद्धांत पर भी प्लेटो ने अपनी बातों को रखा। विरेचन सिद्धांत की व्याख्या अरस्तु ने इसलिए किया क्योंकि वह बताना चाहता था की विरेचन के माध्यम से काव्य अपना एक सुंदर रूप प्रस्तुत करता है तथा एक उद्देश्य की भी पूर्ति करता है। आगे हम अरस्तु के विवेचन सिद्धांत को सरल शब्दों में समझाने का प्रयास करेंगे।

कवि काव्य की रचना तभी करता है जब उसके अंदर कोई एक समुचित भाव उत्पन्न होता है। उस भाव को व्यक्त करना तथा उसका नियोजन करना एक सफल कवि का कार्य होता है। लेकिन क्या हमारे सभी भाव उचित होते हैं? तो इसका उत्तर होगा नहीं क्योंकि काव्य को समाज का अभिन्न अंग माना जाता है। काव्य को पढ़कर सुनकर पाठक उसी भाव दृष्टि से समाज में कार्य करता है। तो कवि का यह प्रयास होना चाहिए कि वह ऐसे काव्य की रचना करें जिससे समाज में एक अच्छा व्यक्ति का निर्माण हो।

विरेचन सिद्धान्त की व्याख्या

जब व्यक्ति अत्यधिक करुणा भाव से भर जाता है तो वह उसके लिए हानिकारक साबित होता है। वह छोटी सी छोटी सी बात पर परेशान हो जाता है और रूदन करने लगता है। वैसे ही जब व्यक्ति के अंदर बहुत अधिक भय रूपी भावना आ जाए तो भी वह बहुत परेशान रहता है। विरेचन इन्हीं करुणा और भय रूपी भावनाओं को मानव हृदय से बाहर निकाल कर उसके मन को शुद्ध और परिष्कृत करता है। ताकि उसके मन और हृदय में सभी भावनाओं के मध्य एक संतुलन बना रहे। किसी एक भावना का हावी होना व्यक्ति के लिए सदैव हानिकारक होता है।

अरस्तु ने विरेचन सिद्धांत की व्याख्या त्रासदी अर्थात करुणा भाव को आधार बनाकर उसके निकट स्वरूप में व्याख्या की है। अरस्तु का मानना है कि व्यक्ति के अंदर त्रासदी के मूल भाव अर्थात करुणा के भाव को उत्पन्न कर विवेचन सिद्धांत के द्वारा मानव मन को परिष्कृत किया जा सकता है। अरस्तु का यह भी मानना है कि विरेचन से शरीर की शुद्धि होती है।

इस सिद्धांत को एक उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। इसको आधुनिक संदर्भ के उदाहरण के माध्यम से भी समझने का प्रयास करेंगे। जैसे किसी सिनेमा में एक नायक है और एक खलनायक है। नायक और खलनायक में 19 और 20 का अंतर है। खलनायक में भी वह सारे गुण हैं जो नायक में है। नायक कुछ गुणों से खलनायक से भिन्न है लेकिन जीवन में वह कुछ ऐसी गलती करता है जिस कारण उसका त्रासदी पूर्ण अंत होता है। अब जो दर्शक उस सिनेमा को देख रहा था पूरी तरह से उसकी भावनाएं और करुणा नायक के साथ जुड़ गई थी।

वह चाहता था कि अंत में नायक की जीत हो लेकिन अंत में वह हार जाता है। जिस कारण दर्शक भावुक होकर रोने लगता है। जिससे उसके अंदर के सारे भाव आंसुओं के माध्यम से बाहर निकल जाते हैं। इसी को अरस्तू ने त्रासदी कहा। इसी त्रासदी के माध्यम से दर्शक के हृदय के करुणा और भय रूपी भावनाओं का वमन होता है। अर्थात बाहर निकलता है। इसी कार्य को अरस्तु ने विरेचन कहा। तथा नायक के माध्यम से यह सीख देने का भी प्रयास करता है कि वह गलतियां हम नहीं करें जिससे हमारा नुकसान हो सकता है।

अक्सर हम देखते हैं कि हमने ऐसे बहुत सारे सिनेमा देखे होंगे जिसमें हम पूरी तरह खो जाते हैं। सिनेमा की भांति कार्य करने लगते हैं। अंत में रोना धोना तमाम चीज इससे क्या होता है कि हमारे भाव उस सिनेमा के माध्यम से बाहर आ जाते हैं। जिससे यह भी पता चलता है कि हम संवेदनशील और करुणा से भी भरे हुए हैं। अर्थात सभी भाव हमारे हृदय में विराजमान है।

साहित्य विरेचन के माध्यम से हमारे मन में जो भी कुटिल भावनाएं और दूषित भावनाएं हैं उसको परिष्कृत करता है। साहित्य को विरेचन का सिद्धांत अरस्तू ने दिया।

अरस्तु ने अपने विरेचन सिद्धांत के माध्यम से दुखांत नाटकों की तार्किक पूर्ण समीक्षा की। यूनान में सुखांत नाटकों की तुलना में वहां पर दुखांत नाटकों की रचना अधिक मात्रा में हुई। दुखांत नाटकों में गंभीरता के तत्व और उदारता के तत्व अधिक मात्रा में होते थे। ऐसा पश्चिमी दार्शनिकों का मानना है।

जब आप दुखांत नाटक देखेंगे तो आप पाएंगे कि कि उसमें करुणा और भय के मनोविकारों का प्रदर्शन किया जाता था फिर भी पश्चिम दर्शक उसे देखना बहुत अधिक पसंद करते थे। जब अरस्तु काव्यशास्त्र की रचना कर रहा था। तब उसने इस प्रश्न का उत्तर अच्छे से दिया है कि क्यों पश्चिमी लोग दुखांत नाटक अधिक मात्रा में देखते हैं? जब अरस्तु दुखांत नाटकों की मीमांसा कर रहा था तभी उसने विरेचन सिद्धांत की कल्पना की।

अरस्तु का मानना है कि यदि हमारे मन में करुणा और भय अधिक मात्रा में एकत्रित होते हैं। तो वह हमारे लिए हानिकारक होते हैं। इसलिए जो दुखांत नाटक होते हैं उसमें कवि ऐसी कृत्रिम भाव को भरता है जो मानव मन और हृदय से करुणा और भय की भावनाओं को निष्कासित करता है।

वर्तमान दौर में सिनेमा में वही कृत्रिम भाव भरे जाते हैं। जो मानव के मन से भय और करुणा के भाव को आंसुओं के माध्यम से निष्कासित कर दिया जाता है ऊपर उदाहरण में आपको बताया गया था कि कैसे दर्शन सिनेमा को देखते-देखते रोने लगता है। यह वही कृत्रिम भाव है जिसको उस सिनेमा में भर गया है। और जैसे ही सिनेमा खत्म होता है तो हम पाते हैं कि यह तो एक काल्पनिक परिकल्पना थी। इसके भाव हमारे हृदय मन से जुड़ गए थे लेकिन इस क्रिया से उस व्यक्ति का मन और हृदय शुद्ध हो जाता है इसे ही विरेचन कहा गया।

अरस्तु ने यह भी बताया कि ट्रेजेडी एक प्रकार की क्रिया है जो हमारे हृदय के अंदर विद्यमान करुणा और भय की भावना को जागृत कर हमारी भावनाओं से निष्कासित करने का रास्ता दिखाता है।

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि विरेचन सिद्धांत अरस्तु द्वारा दिया गया एक सफल और महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसने दुखांत नाटकों की समीक्षा पर अधिक मात्रा में प्रभाव डाला अरस्तु तत्कालीन समय के प्रसिद्ध विद्वान थे। जिन्होंने लगभग सभी विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किया। अरस्तु साहित्य और कल के बहुत बड़े प्रेमी थे। उन्होंने साहित्य को अनुकरण और विरेचन सिद्धांत के माध्यम से पूरे विश्व के सामने रखा की साहित्य हमें नुकसान नहीं पहुंचती बल्कि मानव हृदय को उत्कर्ष और परम वैभव पर पहुंचती है।

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